Sunday, February 21, 2010

भूलना

एक भर्ती खाली है , शताब्दी एक्सप्रेस के आगे गैसबत्ती लेकर दौड़ने की । तनख्वाह दस हज़ार प्रति मिनट ।
कुछ एक साल पहले , SMS पर मिला एक Joke , खूब हँसा था । पर ठीक एक साल बाद , वही चुटकुला पढ़कर , मैं काँप जाता हूँ ?
जैसे किसी ने , अँधेरे में , चाय की गर्माहट का अहसास कराने के लिए , उसमे मेरी उंगली डुबो दी हो और मैं अनुमान से सर उठाकर उसकी और देखकर मुस्कुरा रहा हूँ । अचानक तेलेविसिओं चालु होता है और उस पर आतंकवाद सम्बन्धी एक breaking न्यूज़ देखकर मैं असहज होते हुए , कमरे से बाहर निकल आता हूँ । मुझे भूलने की बहुत बुरी आदत है । अचानक याद आता है कि कमरे में गाड़ी कि चाबी भूल आया हूँ । झुंझलाहट होती है पर जब गुलशन को भूलने कि बात दिमाग में कौंधती है , तो मेरा सर फूलने लगता है और सोचता हूँ कि सर रस्सी से बाँध लूं , या रोऊ दिवार कि तरफ मुह कर के , या फिर ताकता रहूँ छत को । घर मेरा भी बहुत छोटा है , सो जब कमरे का अँधेरा हिस्सा देखता हूँ तो कभी-कभी मितली आने लगती है और अखबार में आई एक खबर पढ़ते ही घूमने लगते है सारे घटनाक्रम "भूलना" के । एक कहानी, जो ढली है ऐसे शिल्प में, जो मैंने तो अब तक कही नहीं देखा । एक कहानी जो मुझे डुबोकर मारना भी चाहती है और बाहर खड़े होकर डूबते हुए देखने का भी मौका देती है । घर के छोटे से हिस्से में जब देश कि सभी समस्याए , जैसे तैसे समा जाती है । जब भरी गर्मी में ढेर सारे कपडे पहना हुआ आदमी तंदरुस्त नहीं दीखता , टायर फटने से आतंकवाद कि शुरुआत होना , पूरे मोहल्ले का गुसलखाने के बाहर खड़े होकर, सपनो के शाहजादे को देखने जैसी बाते , जब नाटकीय नहीं लगती , तो इसे लेखक चन्दन पाण्डेय कि पीठ पर लगी थप्पी कहना चाहिए ।
जैसे कोई कह रहा हो
"देखो ! कहानी ऐसे कही जाती है ।" और मैं कहानी के बाकी हिस्सों पर टिपण्णी करने में खुदको असमर्थ या असहज जानता हुआ । अपनी कलम साइड में रखकर , लिखने के विचार पर , फिर से सोचने लगता हूँ ।